दोस्तों, आपको बताते हुए मुझे आपार खुशी मिल रही है, कि अब मेरा नाम भी भारत के बड़े बड़े विद्वानो मे शामिल हो जाएगा. मुझे बधाई दीजिए, आप अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, सड़क पर चलते हुए आम नागरिक सब को बताइए कि पद्मनाभ अब विद्वान हो गया है. उसके चेहरे से विद्वता झलकती है. यदि आप मेरे मोहल्ले से ताल्लूक रखते हैं तो शर्मा आन्टी, तिवारी अन्टी इत्यादि लोगो को यह बात बता दीजिए कि मै अब विद्वान हो गया हूं. मेरा नाम अब पेपर मे छपवाइए, मेरे नाम से अब आप गली मोहल्ले का नाम रखिए. मेरे नाम से फ्लाईओवर, राष्ट्रीयराजमार्ग इत्यादि का नामकरण कीजिए. ऐँ क्या? आप विद्वानों का सम्मान नही करेंगे? क्या विद्वता इस देश मे नही पूजी जाएगी? आप लोग पढ़े लिखे हैं यदि आप लोग नही विद्वानों का सम्मान करेंगे तो और कौन करेगा.
अब आप पुछेँगे, "ठीक है, ठीक है! हम विद्वानों का सम्मान करेंगे! लेकिन भैय्या एक बात तो बताओ तुम विद्वान तो लगते नही. अपने तीस साल के जिन्दगी मे तुमने ऐसा क्या कर डाला कि हमलोग तुम्हें विद्वान समझने लगें, कौन सा सेब को पेड़ से गिरते हुए देखा है तुमने? जरूर तुमको विद्वान होने का भ्रम हुआ है".
जी नहीं, मुझे विद्वान होने का भ्रम नही हुआ. मैं विद्वान होने ही वाला हूँ. मुझे अभी से एहसास होने लगा है कि मेरे व्यक्तित्व से विद्वता झलकती है. ये और बात है कि मैने किसी सेब को किसी पेड़ से गिरते हुए नही देखा है और न ही मै आधूनिक समाज का नया सिद्धान्त ही दिया हूँ. रोजी रोटी के लिए आम आदमी की तरह भटकता रहता हूँ, लेकिन मेरी अन्तरात्मा ने मुझे एहसास कराया है कि मै विद्वान हूँ. मेरे अवचेतन मस्तिष्क मे यह रच बस गया है कि मै अब विद्वान की सारी विद्वता अपने अन्दर सँजोए हुए हूँ.
अब आप बोलेँगे कि ज्यादा मत पकाओ, सही सही बताओ कि आखिर बात क्या है. नही तो इस ब्लोग को यहीँ पढ़ना छोड़ हम कट लेते हैँ.
जी नही आप ऐसा मत कीजिए, एक विद्वान की विद्वता को इस तरह अपमानित मत कीजिए. चलिए मै आपलोगों को विस्तार से बताता हूँ कि आखिरकार मै विद्वान क्यों?
बचपन से मेरे मस्तिष्क मे एक अवधारणा बैठी थी कुछ लोगों के पेशा के हिसाब से उनको विद्वान बोला जाए. जैसे कि कोई वैज्ञानिक. पहली बार जब अब्दुल कलाम के बारे सुना था कि वे एक वैज्ञानिक हैँ तो मेरा मन उन्हे भी विद्वान समझ लिया था. बचपन के शिक्षा के आधार पर मेरे हिसाब से विद्वानों के श्रेणी मे कुछ और पेशेवर लोग भी आते हैं मसलन बड़े विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, बड़े बड़े लेखक, कवि, बड़े बड़े अस्पताल के डाक्टर और पत्रकार.
जी हाँ जब भी मेरे मस्तिष्क मे एक पत्रकार का नाम कौधाँ, चूड़ीदार पैजामा लम्बा कूर्ता और बाटा का चप्पल पहने एक ऐसे शख्स का इमेज सामने आया, जिसके पास दुनियाँ की हर जानकारी होती थी, एक ही पत्रकार जो आन्सटीन के खोज पर अपना ऐसा विचार व्यक्त कर सकता है जिसके बारे मे आइन्स्टीन कभी सोच भी नही सकता था, पत्रकार समाज शास्त्र मे अरस्तू और सूकरात को छक्के छुड़ा दें, एक ऐसा इमानदार चेहरा जो अकेले ही समाज मे क्रान्ति लाने के लिए काफी हो. एक ऐसा व्यक्तित्व जो अपनी इमानदारी के आगे कभी भी ना झुके.
तो मेरी बचपन की दुनियाँ बदल गई और इसमे रहने वाले लोग भी. लेकिन विद्वान वैसे के वैसे ही. विद्वता की परिभाषा अब भी नही बदली. आज भी समाज मे एक वैज्ञानिक विद्वान के नजर से ही देखे जाते हैँ. तो आज भी एक वैज्ञानिक, विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, और कवि-लेखक इत्यादि सब विद्वानों के श्रेणी मे ही गिने जाते हैँ. जी हाँ और इस इत्यादि मे पत्रकार महोदय भी शामिल हैँ, खास तौर पर इन टी.वी. मे न्यूज पढने वाले (वाली) सारे पत्रकार.
एक बार आप इन टी.वी न्यूज रीडर के चेहरे को ध्यान से देखिए, सबको यह अन्दर से फील होता हुआ मालूम होगा कि उनके अन्दर विद्वता कूट कूट कर भरी है. परचून के दूकान से अभी अभी डेढ़ किलो विद्वता खरीदकर लाए हैँ और गटा गट अपने अन्दर कर लिए हैँ और वही विद्वता अब दर्शको को फील करबा रहे हैं. आप उनको पोले और मूर्ख प्रेजेन्टर समझते रहेँ, आप अपनी बला से, उनको तो तीन रुपैय्ये चार आने प्रति किलो की दर से विद्वता परचून की दूकानों मे ही मिल जाती है और अपनी विद्वता को फील करवाने के लिए दर्शक मिल ही जाते हैँ.
दोस्तोँ अब विद्वान होने के लिए वर्षोँ का मेहनत नही चाहिए. विद्वान होने के लिए बाल का सफेद होना भी जरूरी नही है. ना ही बहुत पढाई करने की. विद्वान होने के लिए इमानदार भी होना जरूरी नही है. जब पत्रकार लोगोँ ने उस परचून के दूकान का पता हमे दे ही दिया तो मैने सोचा विद्वता अभी सस्ती मिल रही है. अभी खरीद कर अभी विद्वान हो लेते हैँ, ना जाने आगे यदि फिर से विद्वता महगी हो गयी तो मुझे विद्वान होने का मलाल रह ही जाएगा. आजतक पर कुछ दिन पहले पुण्य प्रसून बाजपेई जी विद्वान बने थे, फिर दीपक चौरसिया विद्वान बने हैँ, मैने अभी कल ही देखा है एक नया विद्वान आज-तक पर आया है. नाम है उनका अभिसार शर्मा. आजतक पर इस विद्वान ने भी ऐसे ही चीखना चिल्लाना शुरु कर दिया है जैसे बाजपेयी जी और चौरसिया जी जैसे विद्वान करते आए हैँ.
टी.वी. पत्रकारिता का दौर है, मेरे मोहल्ले के परचून के दुकान मे तीन रुपैय्ये चार आने प्रति किलो की दर से विद्वता बिक रही है. मै तो विद्वता खरीद कर विद्वान बन गया. यदि आप भी चाहते हैँ कि आप विद्वान बनेँ, आपको अपने अन्दर से आपकी विद्वता झलके तो टिप्पणी के द्वारा मुझसे सम्पर्क करेँ.
अब आप पुछेँगे, "ठीक है, ठीक है! हम विद्वानों का सम्मान करेंगे! लेकिन भैय्या एक बात तो बताओ तुम विद्वान तो लगते नही. अपने तीस साल के जिन्दगी मे तुमने ऐसा क्या कर डाला कि हमलोग तुम्हें विद्वान समझने लगें, कौन सा सेब को पेड़ से गिरते हुए देखा है तुमने? जरूर तुमको विद्वान होने का भ्रम हुआ है".
जी नहीं, मुझे विद्वान होने का भ्रम नही हुआ. मैं विद्वान होने ही वाला हूँ. मुझे अभी से एहसास होने लगा है कि मेरे व्यक्तित्व से विद्वता झलकती है. ये और बात है कि मैने किसी सेब को किसी पेड़ से गिरते हुए नही देखा है और न ही मै आधूनिक समाज का नया सिद्धान्त ही दिया हूँ. रोजी रोटी के लिए आम आदमी की तरह भटकता रहता हूँ, लेकिन मेरी अन्तरात्मा ने मुझे एहसास कराया है कि मै विद्वान हूँ. मेरे अवचेतन मस्तिष्क मे यह रच बस गया है कि मै अब विद्वान की सारी विद्वता अपने अन्दर सँजोए हुए हूँ.
अब आप बोलेँगे कि ज्यादा मत पकाओ, सही सही बताओ कि आखिर बात क्या है. नही तो इस ब्लोग को यहीँ पढ़ना छोड़ हम कट लेते हैँ.
जी नही आप ऐसा मत कीजिए, एक विद्वान की विद्वता को इस तरह अपमानित मत कीजिए. चलिए मै आपलोगों को विस्तार से बताता हूँ कि आखिरकार मै विद्वान क्यों?
बचपन से मेरे मस्तिष्क मे एक अवधारणा बैठी थी कुछ लोगों के पेशा के हिसाब से उनको विद्वान बोला जाए. जैसे कि कोई वैज्ञानिक. पहली बार जब अब्दुल कलाम के बारे सुना था कि वे एक वैज्ञानिक हैँ तो मेरा मन उन्हे भी विद्वान समझ लिया था. बचपन के शिक्षा के आधार पर मेरे हिसाब से विद्वानों के श्रेणी मे कुछ और पेशेवर लोग भी आते हैं मसलन बड़े विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, बड़े बड़े लेखक, कवि, बड़े बड़े अस्पताल के डाक्टर और पत्रकार.
जी हाँ जब भी मेरे मस्तिष्क मे एक पत्रकार का नाम कौधाँ, चूड़ीदार पैजामा लम्बा कूर्ता और बाटा का चप्पल पहने एक ऐसे शख्स का इमेज सामने आया, जिसके पास दुनियाँ की हर जानकारी होती थी, एक ही पत्रकार जो आन्सटीन के खोज पर अपना ऐसा विचार व्यक्त कर सकता है जिसके बारे मे आइन्स्टीन कभी सोच भी नही सकता था, पत्रकार समाज शास्त्र मे अरस्तू और सूकरात को छक्के छुड़ा दें, एक ऐसा इमानदार चेहरा जो अकेले ही समाज मे क्रान्ति लाने के लिए काफी हो. एक ऐसा व्यक्तित्व जो अपनी इमानदारी के आगे कभी भी ना झुके.
तो मेरी बचपन की दुनियाँ बदल गई और इसमे रहने वाले लोग भी. लेकिन विद्वान वैसे के वैसे ही. विद्वता की परिभाषा अब भी नही बदली. आज भी समाज मे एक वैज्ञानिक विद्वान के नजर से ही देखे जाते हैँ. तो आज भी एक वैज्ञानिक, विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, और कवि-लेखक इत्यादि सब विद्वानों के श्रेणी मे ही गिने जाते हैँ. जी हाँ और इस इत्यादि मे पत्रकार महोदय भी शामिल हैँ, खास तौर पर इन टी.वी. मे न्यूज पढने वाले (वाली) सारे पत्रकार.
एक बार आप इन टी.वी न्यूज रीडर के चेहरे को ध्यान से देखिए, सबको यह अन्दर से फील होता हुआ मालूम होगा कि उनके अन्दर विद्वता कूट कूट कर भरी है. परचून के दूकान से अभी अभी डेढ़ किलो विद्वता खरीदकर लाए हैँ और गटा गट अपने अन्दर कर लिए हैँ और वही विद्वता अब दर्शको को फील करबा रहे हैं. आप उनको पोले और मूर्ख प्रेजेन्टर समझते रहेँ, आप अपनी बला से, उनको तो तीन रुपैय्ये चार आने प्रति किलो की दर से विद्वता परचून की दूकानों मे ही मिल जाती है और अपनी विद्वता को फील करवाने के लिए दर्शक मिल ही जाते हैँ.
दोस्तोँ अब विद्वान होने के लिए वर्षोँ का मेहनत नही चाहिए. विद्वान होने के लिए बाल का सफेद होना भी जरूरी नही है. ना ही बहुत पढाई करने की. विद्वान होने के लिए इमानदार भी होना जरूरी नही है. जब पत्रकार लोगोँ ने उस परचून के दूकान का पता हमे दे ही दिया तो मैने सोचा विद्वता अभी सस्ती मिल रही है. अभी खरीद कर अभी विद्वान हो लेते हैँ, ना जाने आगे यदि फिर से विद्वता महगी हो गयी तो मुझे विद्वान होने का मलाल रह ही जाएगा. आजतक पर कुछ दिन पहले पुण्य प्रसून बाजपेई जी विद्वान बने थे, फिर दीपक चौरसिया विद्वान बने हैँ, मैने अभी कल ही देखा है एक नया विद्वान आज-तक पर आया है. नाम है उनका अभिसार शर्मा. आजतक पर इस विद्वान ने भी ऐसे ही चीखना चिल्लाना शुरु कर दिया है जैसे बाजपेयी जी और चौरसिया जी जैसे विद्वान करते आए हैँ.
टी.वी. पत्रकारिता का दौर है, मेरे मोहल्ले के परचून के दुकान मे तीन रुपैय्ये चार आने प्रति किलो की दर से विद्वता बिक रही है. मै तो विद्वता खरीद कर विद्वान बन गया. यदि आप भी चाहते हैँ कि आप विद्वान बनेँ, आपको अपने अन्दर से आपकी विद्वता झलके तो टिप्पणी के द्वारा मुझसे सम्पर्क करेँ.
मित्र बहुत ही सटीक बात कह दी बकवास करते-करते आपने. मज़ा आया और दिमाग़ में इन टीवी युगीन विद्वानों का मर्ज और दर्द एक साथ कौंध गया. अच्छा लिखते हैं. पहली बार आया आपके ब्लॉग पर, मंत्रमुग्ध हो गया. दो कामचलाउ ब्लॉग चलाकर मैंने भी अपने आपको लेखक, एडिटर, ऑथर न जाने क्या-क्या साबित करने का प्रण कर लिया है. मौक़ा मिले तो घूम आइएगा.
ReplyDeletehttp://haftawar.blogspot.com
http://safarr.blogspot.com
सटीक और सुंदर। गांभीर्य लेख। लिखते रहें।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...गंभीर..नो हास्य..मगर आपके चेहरे से वाकई विद्वता झलकने लगी है मित्र.
ReplyDeleteहम तो रेडीमेड विद्वान हैं किसी दुकान पर क्यों जाएं.....
ReplyDeleteबहुत सुंदर मित्र । आपकी साफगोई का मुरीद हूं और इन टीवीवालों की हकीकत को भी बरसों से जानता हूं। अधजल गगरी...पता नहीं इस पर लिखने-बोलने में क्यों कतराते हैं लोग। हमें तो आज भी हर हाल में पुरानावाला दूरदर्शनी युग ही खरा लगता है। यूं आज वाला दूरदर्शन भी बुरा नहीं है। अपना ईमेल आईडी ज़रूर बताएं।
ReplyDeleteजी अजीत जी;
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए धन्यवाद. मेरा ई.मेल है mishrapadmanabh@yahoo.co.in
अरे हमें तो पता ही नहीं था वरना कभी के विद्वान बन चुके होते। धन्यवाद, अब हम भी आपकी श्रेणी में गिने जायेंगें।
ReplyDeleteपद्यनाभ जी, मजा आ गया। टीवी वालों के साथ-साथ इन अखबार वालों की आप क्यों नहीं बाट लगाते हैं।
ReplyDeleteवाकई! आपकी बकवास में ही ’विद्वानता’का वास हॆ.क्यों किसी दुकान-वुकान के चक्कर में पडते हो?अगर मान लो,दुकान से एक-दो किलो ले भी आये,तो क्या गारंटी हॆ,माल असली ही मिलेगा? मुझे पता हॆ ये टी०वी० पर जितने भी रंग-बिरंगे विद्वान बॆठे हॆ,सब आप वाली दुकान से ही खरीदकर लाये हॆ.
ReplyDeleteमै जिस विद्वान की बात कर रहा था... मेरा विद्वान होना उनकी विद्वता का अपमान है. आपसे मेरा अनुरोध ऐसे ही आप किसी को विद्वान नही समझ लेँ. और रही बात दुकान की तो दुकान पत्रकारों ने खोल रखा है मेरी इतनी कहाँ औकात कि विद्वता का दुकान खोलूं. है कि नही?
ReplyDeleteपद्मनाभ जी,
ReplyDeleteअपने'क ई लेख लागल त बहुत नीक मुदा पढ़वा में किछु विलम्ब भ गेल ! से जा धरि अपने'क बतायेल दोकान पर गेलौंह, विद्वता पर जे ऑफर छल सेहो बंद भा गेल छल आ भाव सेहो ने पोसाए बला छल ! तें हम ओताए सों घूमि ऐलौंह आ सम्प्रति बुरिबके बनि जीवन बिता रहल छी !!
पद्मनाभ जी,
ReplyDeleteअपने'क ई लेख लागल त बहुत नीक मुदा पढ़वा में किछु विलम्ब भ गेल ! से जा धरि अपने'क बतायेल दोकान पर गेलौंह, विद्वता पर जे ऑफर छल सेहो बंद भा गेल छल आ भाव सेहो ने पोसाए बला छल ! तें हम ओताए सों घूमि ऐलौंह आ सम्प्रति बुरिबके बनि जीवन बिता रहल छी !!
हे भगवान,
ReplyDeleteमैं अपने आप को सुरक्षित समझ रहा था. मन का विकार यही निकाला करता था. अपने से एक पीढी ऊपर वाले यहाँ पहुँच जाएंगे पता नही था वरना सम्भाल कर लिखता. लेकिन अच्छा लगा किसी ने यहाँ पर घर के नाम से बुलाया. पता नही था की बात निकलेगी टू दूर तलक जाएगी.
मौसा जी, हमर अहोभाग्य जे अपने एतय पहुंचालाहूँ. आई काल्हि बहुत व्यस्त छी. घर सिफ्ट केलहूँ. तें बहुत दिन सं ने लिखालाहूँ
Hi there!!
ReplyDeleteU r cheeky and capable of truly innovative thinking.
Extremely lively blog... is not like i was reading something, but felt like i was listening to someone's thoughts..
bahut hi sunder vaakya rachana
regards
Paridhi
Thanks Paridhi!
ReplyDeleteDue to lack of time I am not writting these days.
हम इससे सस्ती बेच रहे है जी तुरंत पैसे भिजवाये १ टन के आदेश पर १०० ग्राम फ़्री भी ले जाये :)
ReplyDeleteब्लॉगजगत में पहली बार एक ऐसा "साझा मंच" जो हिन्दुओ को निष्ठापूर्वक अपने धर्म को पालन करने की प्रेरणा देता है. बाबर और लादेन के समर्थक मुसलमानों का बहिष्कार करता है, धर्मनिरपेक्ष {कायर } हिन्दुओ के अन्दर मर चुके हिंदुत्व को आवाज़ देकर जगाना चाहता है. जो भगवान राम का आदर्श मानता है तो श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र भी उठा सकता है.
ReplyDeleteइस ब्लॉग के लेखक बनने के लिए. हमें इ-मेल करें.
हमारा पता है.... hindukiawaz@gmail.com
समय मिले तो इस ब्लॉग को देखकर अपने विचार अवश्य दे
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